अरुणाचलम तेरा अहसास by Dinesh Chabra

 

1. “अरुणाचलम तेरा अहसास”

 

आंसू थे की रुकने का नाम नहीं ले रहे थे सब अनोखा सा महसूस हो रहा था। कहाँ से यह आंसू और बह निकले और क्यों? हालाँकि आध्यात्मिकता से जुड़ने की यह मेरी पहली बारी नहीं थी। मैं नौ साल की उम्र से ही भागता रहा हूँ इस खोज में। कई जगह गया हरिद्वार, ऋषिकेश, वैष्णोदेवी, नीलकंठ महाराज चारों धाम की यात्रा की किन्तु सब व्यर्थ तो नहीं परन्तु मैं जो पाना चाहता था शायद मिल नहीं रहा था।

 

ऋषिकेश में श्री बॉबी दीवान से मिलना भी कम अचरज भरा नहीं था। दोबारा फिर ऋषिकेश में श्री बॉबी दीवान के संपर्क में परमार्थ आश्रम जाना और वह भीगी वर्षा भरी शाम शायद मेरे जीवन की कुछ अच्छी यादों में शामिल हो गई। इसी दौरान डॉ. बॉबी ने मुझे महऋषि भगवान रमण के बारे में कुछ शब्दों ने मुझे अन्तः करण तक उत्साहित कर दिया। उनके यह कहने पर मै 30 सितम्बर को अरुणाचलम आश्रम मे चलूँ चाहकर भी कुछ सोच या निर्णय ले पाता। शायद कहीं कोई शक्ति (दैवीय) कुछ भी सोचने न सोचने देती। मैं शून्य की और खिंचता चला गया। न जाने कैसे मैंने आश्रम मे मेल कर दिया और जैसे ही अनुग्रहित हुआ वैसे ही आने की जो व्यवस्था बानी वह सब कल्पनीय था अद्भुत था 17 जुलाई से 30 सितम्बर का समय जो शायद बयां ही न कर सकता।

 

और मैंने स्वयं को पाया महऋषि रमण के समक्ष चक्षुओं के उन साक्षात्कार का जो मैंने अंतस से न सिर्फ महसूस किया बल्कि यह भी जाना की शायद मेरी दौड़ जो 9 साल की उम्र से शुरू हुई थी थम सी गई है असंभव सा लगने वाला वह वातावरण जिसने मुझे वह शक्ति प्रदान की जो यह जान सके समर्पण क्या है। कौन है वह मुझे वह दे पाये जो यहीं है बस यहीं है।

 

आश्रम का वह स्नेहिल वातावरण जहाँ बन्दर, मोर, कुत्ते, इंसान सभी के लिए प्यार ही प्यार, महऋषि रमण की मंद मंद मुस्कान जो सभी का मन मोह लेती है। अरुणाचलम की वह छतरछाया जहाँ एक बालक ने निर्वाण पाया। मैंने महसूस किया जैसे स्वयं “रमण” वहीँ हम सभी के बीच रमण करते हैं। अपलक मेरा उनकी आँखों का मेरी आँखों मै उत्तर जाना क्या क्षण था वह मैंने न जाने कितनी देर पालक नहीं झपकाई मुझे समय का एहसास नहीं रहा शायद समय रुक गया। मेरे वह दो दिन ध्यान कक्ष मै महऋषि रमण से मौन वार्तालाप जो शायद न किसी से कह सकूँ क्यूंकि मुझे लगता है सभी को यह अनुभव हुआ होगा।

 

मुझे यह अफ़सोस है कि मैं गुफाओं कि यात्रा पूर्ण न कर सका क्यूंकि परिक्रमा  मे मेरे पाँव मे छाले पढ़ गए मेरा वजन बहुत ज्यादा है। महऋषि रमण ने मुझे बहुत कुछ अर्पण कर दिया। निसंदेह मुझे दोबारा वहां बुलाने कि लिए मुझे अरुणाचलम, गुफाएं, परिक्रमा मे अधूरापन रह गया. शायद मुझे महऋषि इससे कहीं अधिक देना चाहते हैं। मेरी अंतस की पिपासा को शांत कर पाये ऐसा मेरा अनुभव रहा परन्तु अभी और प्यास की खोज मे मुझे आना ही पढ़ेगा।

 

“अभी नहीं है मुझ मे पाने की काबिलियत तेरे काबिल बन जाऊं तो जरा…………”।।।।

 

2.”मह्रिषी रमन संक्षिप्त यात्रा”

वह जन्म उपरांत वेंकटरमन ऐय्यर थे, परन्तु धीरे धीरे बाद में भगवन श्री रमन मह्रिषी नाम से प्रसिद्ध हुए ।

उनका जनम तिरुचुलि,तमिलनाडु में हुआ था। 1895 में उनका आकर्षण पवित्र पहाड़ी अरुणाचल व 63  नायनमार की और गया । तथा 1896  में, 16  वर्ष की उम्र में , उन्हें “मौत का अनुभव” हुआ जिसमे उन्होंने ‘वर्तमान’ या ‘शक्ति’ की जागरूकता प्राप्त की, जिसमे “मैं” या “स्व” की पहचान की और बाद में ईश्वर के रूप में पहचान पाई । इसके परिणामस्वरूप एक राज्य का निर्माण हुआ जिसे बाद में “ईश्वर या ज्ञानी मन का राज्य” कहा गया। 6  हफ़्तों बाद उन्होंने अपने चाचा का घर मदुरै छोड़ दिया व पवित्र पर्वत अरुणाचल, तिरुवन्नामलाई की और यात्रा पर गए, जहाँ एक सन्यासी के रूप में अपना शेष जीवन व्यतीत किया।

जल्द ही उन्हें ऐसे भक्तों का सानिध्य मिला जिन्होंने उन्हें अवतार माना और उनके दर्शन के लिए आने लगे व बाद के वर्षों में अनाश्रम उनके आस पास विकसित हुआ, जहाँ आगंतुक उपासना प्राप्त करते थे उनके सानिध्य में शांत बैठ कर वे अपनी जिज्ञासा शांत करते थे। 1930 के दशक तक उनका ज्ञान पश्चिम तक लोकप्रिय हो गया जो धीरे धीरे दुनिया भर में विकसित हो गया।

रमन ऋषि ने कभी अपना अनुयायी नहीं बनाया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया की भगवन चाहे कोई भी भक्ति किसी भी रूप में करो, परन्तु उन्होंने यह सिफारिश की है कि ‘स्वयं’ या ‘मैं’ को खोजो। उनकी मुख्य सीख यही थी कि खुद को खोजो ” मैं कौन हूँ” (Who am I?)

 

 

गुरु कौन है?

जो जीवन को अमृत से भर दे, ह्रदय के घने अंधकार को हटाकर उसे ज्योतिर्मय कर दे। जो सांसारिक आकर्षण रुपी राग को मिटाकर ईश्वर के प्रति अनुरागी बना दे, वही गुरु है। शिष्य गुरु का मानसपुत्र होता है। वह उसे अपने तपोमय गर्भ में गढ़ता है। शिष्य कच्ची मिटटी के कुम्भ के समान होता है। गुरु शिष्य की कुवृत्तियों, ख़राब आदतों व कुसंस्कारों को ठोक पीटकर ठीक करता है, उसे नया आकर प्रदान करता है। वह शिष्य को सत्पथ दिखाता है।

परमात्मा हमसे बहुत दूर है जिसका फैसला कितना है मालूम नहीं. ऐसे में गुरु की कृपा अनिवार्य हो जाती है. उनकी कृपा कभी कष्ट बनकर आती है तो कभी कृपा बनकर तो कभी करुणा बनकर. अनेक विधि विधानों से वे हम शिष्यों की नींद तोड़ते हैं. इस प्रयास में सबसे पहले हम संसार से अलग होते हैं फिर हमारे सभी दृष्टिकोण छिन जाते हैं और अंत में वह हमसे हमको छीन लेते हैं ऐसा करके वे स्वयं में हमें मिला लेते है. फिर देते हैं – यह परम अनुभूति की गुरु व परमात्मा सदा से एक हैं तथा उनका शिष्य भी अब उनसे अलग नहीं रह गया है ।

गुरु की परिभाषा

प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए किसी देहधारी पूरे गुरु की आवश्य्कता क्यों होती है, इसे समझने के लिए इस बात को भली भांति मन में बैठा लेना जरुरी है की सच्चे गुरु परमात्मा के ही व्यक्त रूप होते हैं । सच्चे गुरु व परमात्मा के बीच कोई अंतर नहीं होता । अहंकार ही मनुष्य व परमात्मा के बीच एकमात्र आवरण है । सच्चे गुरु इस आवरण को पूर्णतः दूर कर अपने आपको परमात्मा से उसी प्रकार एकाकार कर लेते हैं जिस प्रकार नदी समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है ।

मनुष्य अपनी भौतिक सीमाओं के कारण प्रभु के विशुद्ध आध्यात्मिक या अभौतिक रूप का दर्शन करने में सर्वथा असमर्थ है। परमात्मा तक उसकी पहुँच तभी हो सकती है जब स्वयं परमात्मा मनुष्य का रूप धारण कर मनुष्य से उसके भौतिक स्तर पर आकर मिले । दयालु परमात्मा मनुष्य के उद्धार के लिए ठीक यही साधन अपनाता है। वह मानवीय रूप धारण कर संसार में आता है और उसके इसी मानवीय रूप को ‘गुरु’ नाम दिया जाता है अर्थात गुरु मनुष्य रूप में परमात्मा है । अपने मानवीय रूप के माध्यम से वह जीवों को चिताता है और उन्हें सही मार्ग दिखाकर अपनी कृपा के सहारे परमात्मा से मिलाता है।

गुरु ऊंच या नीच किसी भी कुल में जन्म ले तथा अमीरी या गरीबी किसी भी स्थिति में जीवन बसर करें – इन सांसारिक परिस्थितियों का उनकी आध्यात्मिक गरिमा पर कोई असर नहीं पड़ता । उनके भगवत प्रेम की निर्मल धारा उनके संपर्क में आने वाले सभी छोटे बड़ों को एक सा पवित्र करती है । जल में रहते हुए भी जल से सदा अछूता रहने वाले कमल के समान गुरु संसार में रहते हुए भी संसार से निर्लिप्त रहते हैं व सर्वत्र अपनी रूहानी सुगन्धि बिखेरते हैं ।

 

 

जीवन में गुरु का महत्व क्या है?

मनुष्य जब पूर्ण गुरु के संपर्क में आता है, जो परमात्मा का साकार रूप है, तब वह गुरु के द्वारा परमात्मा से संपर्क स्थापित कर लेता है और गुरु की ही कृपा से परमात्मा से उसका मिलाप हो जाता है । एकमात्र गुरु ही हमें मार्ग दिखा सकता है, हमारे पापों की सफाई कर हमें पवित्र कर सकता है और आंतरिक शब्द धुन से जोड़कर हमें अलख, अगम तक पहुंचा सकता है। अन्य सभी प्रकार की बहुर्मुखी धार्मिक क्रियाएं व्यर्थ हैं। वे हमें केवल गुमराह करती हैं।

नाम ही परमात्मा को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है और वह नाम केवल गुरु द्वारा मिल सकता है। एकमात्र गुरु ही हमें सच्चे प्रेम की दीक्षा दे कर तथा सच्चे नाम से जोड़कर परमात्मा के पास जाने का दरवाजा खोलता है, ज्ञान का दीप जलाता है। हमारी आंतरिक आँख व कान को खोलता है तथा संसार के माया जाल व संकट को दूर कर हमें भवसागर से पार करता है ।

गुरु ने ज्ञान का दीपक प्रदान किया व उस दीपक की बत्ती जल दी । प्रभु की भक्ति करवा कर गुरु ने हमारे जनम मरण का चक्कर समाप्त कर दिया।

यदि अंधे को गुरु मिल जाये तो गुरु का शिष्य बन जाने के कारण शिष्य का अंधापन मिट जाता है। गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान की आँख के बिना भला सांसारिक भ्रम जाल कैसे मिट सकता है?

माया रुपी दीपक को जलता देखकर मनुष्य रुपी पतंगा अँधा होकर उस पर टूट पढता है और उसमे जल मरता है अर्थात अपने आपको नष्ट कर लेता है । गुरु का ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई विरला ही इस माया की आग से बच सकता है ।

दिलरूपी दरिया के अंदर हीरे और लाल भरे पढ़े हैं पर इसकी सूझ समझ किसी गुरमुख महात्मा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। उनकी मर्जी से, उनकी हिदायतों या संकेतों पर विचारपूर्वक अमल करने से ही वे हीरे जवाहरात हाथ आ सकते हैं ।

गुरु प्रभु तक पहुँचने के सभी रहस्यों को जानता है। पर गुरु की शरण न लेकर कोई शट दर्शन के बीच परमात्मा की खोज करता है व कोई वेद का बखान करने में लगा हुआ है। कुछ लोग अनेक प्रकार से साँस चढ़ाने उतरने में लगे हुए हैं व समझते हैं की वे शून्य समाधि लगाए बैठे हैं । कुछ लोग कान फढवाते हैं व कुछ लोग शरीर में भस्म लगाते हैं तथा अनेक लोग वैरागी बने भटकते रहते हैं। बहुत से लोग तीर्थ व्रत करने में लगे हुए हैं व बहुत से गेरुआ वस्त्र लपेटे फिर रहें हैं । उन्हें पूरे गुरु मिल गए हैं जिन्होंने उनको अंतर में परमात्मा से मिला दिया है।

गुरु ने हमें मार्ग दिखाया है। हमारे पिछले जन्म के सब पाप नष्ट हो गए हैं व हमारे सभी दुःख दूर हो गए हैं। परमात्मा की खोज बाहर करते हुए हमने अपना जन्म बर्बाद कर दिया था। पर वह परमात्मा तो हमारे अंदर निवास करता है जिसे अंतर्मुखी ध्यान द्वारा जाना जा सकता है । यह अगम्य ज्ञान हमें गुरु के प्रताप से प्राप्त हुआ है। हम कनक कामिनी के बीच  सदा मग्न रहते थे व मृत्यु के कष्ट की चिंता नहीं करते थे। अब गुरु ने हमें राह दिखाई है, जिससे सांसारिक विषयों की तृष्णा बुझ गई है व मन का क्लेश मिट गया है ।

 

गुरु की असली पहचान

सच्चे गुरु की पहचान किसी चिह्न से नहीं की जा सकती। वास्तव में वह परमात्मा का रूप होता है, वह अंतर में परमात्मा से जुड़ा होता है व उसकी आंतरिक वृत्ति सदा परमात्मा में लीन होती है। वह कभी दूसरों पर भार नहीं बनता। सांसारिक सुख-दुःख, जनम-मरण, लाभ-हानि, जीत-हार आदि जीवन के चढ़ाव उतार उसके मन में हर्ष या शोक पैदा नहीं करते । उसमे लेश मात्र भी अहंकार नहीं होता व न किसी के प्रति द्वेष भाव होता है।

  • वह केवल परमात्मा के प्रेम में लगा रहता है व किसी की तरफ उसका ध्यान नहीं जाता।
  • वह परिश्रम को परमात्मा मानकर दिन रात परिश्रम रुपी परमात्मा की पूजा में लगा रहता है।
  • वह यही अपना धर्म मानता है की नेक कर्म करना है जो उसे भवसागर से पार करेगा।
  • सच्चा गुरु सुख-दुःख व लाभ-हानि को एक समान समझता है।
  • सच्चा गुरु राग द्वेष त्यागकर निष्काम भाव से कार्य करता है । वह सुख-दुःख आदि सभी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में सदा स्थिर बना रहता है ।
  • वही सच्चा गुरु है जो सबके प्रति वैर विरोध को त्याग कर रहता है । वह सबको सुख देने वाला व सबके साथ समान व्यव्हार करने वाला होता है ।
  • वही गुरु सच्चा है जो निष्कपट, निष्पक्ष, क्षमाशील, सरलचित्त तथा बाहर व अंदर से पवित्र होता है ।
  • सच्चे गुरु की वाणी सदा निर्मल होती है और जिसे दर्शन व स्पर्श से मन में सुख शांति आती है ।
  • सच्चा गुरु अपने मन से विकारों को नष्ट कर देता है, वह अपने हृदय में अहंकार को टिकने नहीं देता।

 

गुरु शिष्य सम्बन्ध

गुरु शिष्य के रिश्ते में रहने व सीखने की परंपरा निहित है । गुरु शिष्य जो भावनात्मक, बौद्धिक व धार्मिक गहनता में विलीन होते हैं। यह बंधन गुरु को उसकी भूमिका निभाने में मदद करता है।

यह गुरु शिष्य समाज में मानव की सफलता (मंजिल) है । आधुनिकता के वश में आज लोग इस रिश्ते को भूलते जा रहे हैं। इसके अभ्यास की जरुरत सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में नहीं जीवन के हर क्षेत्र में होती है। गुरु शिष्य को अँधेरे से निकाल के उजाले में लाता है। गुरु शिष्य के जीवन को अंधकारहीन कर देता है। वह भी बिना किसी स्वार्थ के अपने शिष्य के प्रति समर्पित होता है।‘

 

 

 

गुरु से मिलाप का सुख

जिस दिन परमात्मा के प्यारे भक्त का सच्चे गुरु से मिलाप होता है, वह दिवस सचमुच ही अत्यन्त सौभाग्यपूर्ण होता है। परमात्मा के प्यारे सज्जन जहाँ भी चरण रखते हैं वह स्थान पवित्र हो जाता है। वे इस संसार में दयावश केवल परोपकार के लिए आते हैं व जो भी जीव उनके संपर्क में आते हैं और उनसे दीक्षा लेकर उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, उन्हें वे भवसागर से पार ले जाते हैं।

शिष्य को अपने गुरु के दर्शन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह अवर्णनीय है। माया मोह के अंधकार में पढ़े विषय वासनाओं में आसक्त जीवो को उस अलौकिक आनंद का आभास तक नहीं हो सकता। वे सच्चे गुरु की अद्भुत महिमा व निराली शान की कल्पना भी नहीं कर सकते ।

आज का दिन धन्य है, मैं इस पर बलिहार जाता हूँ, क्यूंकि आज मेरे घर परम प्रभु परमात्मा के प्यारे भक्त सतगुरु पधारे हैं। मेरा घर आँगन व सहन पवित्र हो गया है तथा प्रभु भक्त बैठकर परमात्मा का यशोगान कर रहे हैं । मैं अपने सतगुरु के चरणों में शीश झुकाता हूँ, उनके चरण धोता हूँ व उन पर तन, मन व धन न्योछावर करता हूँ। वे हरि कथा सुनाते हैं तथा गुरुओं की वाणी का अर्थ बताते व उसकी व्याख्या करते हैं। वे स्वयं मुक्त हैं व औरों को भी मुक्ति प्रदान करते हैं । यदि परमात्मा का अपना प्यारा सेवक मिल जाता है, तो वह जन्म जन्म क कर्मों का बंधन काट डालता है।

गुरु से मिलाप होने पर जो सुख प्राप्त होता है, उसे कैसे कहा जाये? उनकी उपस्थिति में प्रभु का यशोगान करते हुए सारा क्लेश दूर हो जाता है। वे लोग भला गुरु की महिमा कैसे जान सकते हैं जो माया के जंजाल में लिपटे हुआ हैं? जिस तरह तेली का बैल, जिसकी आँखों पर ढांपने लगा होता है, बिना कुछ देखे हुए निरन्तर चलते रहने के संकट में पढ़ा रहता है, ठीक उसी तरह अज्ञानी जन माया के कारण अंधे बने संसार में सदा जूझते रहते हैं, पर उन्हें आठों पहर कुछ भी नहीं सूझता, क्यूंकि उनकी आंतरिक आँख ढाँपि हुई है । जो मनुष्य परमात्मा के नाम का उच्चारण नहीं करता, वह मानो गधे के समान पड़े पड़े केवल अपना पेट भरता है । जो परमात्मा की भक्ति में लीन हैं, उसे परमात्मा के बल पर हर्ष से सिंहनाद करते हैं, मानो उन्हें चारो पदार्थों (अर्थ, काम, धर्म व मोक्ष) की प्राप्ति हो गई है।

Submitted by Dinesh Chabra



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